पाहिला विठ्ठल...!
पाहिला विठ्ठल...!
अभंग(६६६४)
पाहिला विठ्ठल।घरी हो साक्षात।
खरा प्रत्यक्षात।डोळ्या पुढे।।
कथा ही सुंदर।घडली सहज।
सांगतो हो आज।श्रवणावी।।
पूजा अर्चा काल।भक्ती भावे केली।
विंनंती ही केली।दर्शनाची।।
म्हंटले देवास।दाव तुझे रूप।
आस असे खूप।दर्शनाची।।
कोणत्याही रूपे।येरे डोळ्या पुढे।
माझे हे साकडे।जाणोनिया।।
दिवस सरला।देव ना दिसला।
दृष्टांत कसला।ना हो घडे।।
झालो मी नाराज।नसता की काज।
विपरीत आज।घडलेकी।।
राग स्वाभाविक।धरोनिया उरी।
डोळे दारावरी।स्थिरावती।।
इतक्यात घरी।आला पांडुरंग।
वाटला श्रीरंग।आपोआप।।
लहान मूल ते।वाटे पांडुरंग।
भरला की रंग।जीवनात।।
कर कटेवरी।ठेवोनिया उभा।
भरला की गाभा।हृदयाचा।।
म्हंटले माऊली।तुझी ग सावली।
प्रत्यक्ष पाहिली।मनसोक्त।।
झालो मी कृथार्थ।जन्मा रे येऊन।
तुला रे पाहून।उभाउभी।।
पूजा पांडुरंगा।सफल रे झाली।
इच्छा पूर्ण केली।माये पोटी।।
असा पांडुरंग।बाल रूपे आला।
माझ्या हो घराला।योगायोगे।।
सांगा कोण म्हणे।आता नाही देव।
तोचि एकमेव।चराचरी।।
पांडुरंग देव।पांडुरंग मन।
पांडुरंग तन।पांडुरंग।।
©प्रशांत शिंदे,कोल्हापूर
8097740679
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